भारतीय संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को एक नागरिक माना गया
है| संविधान में दलित जातियों, जनजातियों एवं अल्पसंख्यकों के लिए उनके समान
नागरिक अधिकारों के साथ-साथ विशेष प्रावधान भी किये गए हैं| भारत में सामाजिक एवं
सांस्कृतिक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अब परिपक्व अवस्था में है| ये प्रक्रियाएं
संवैधानिक, चुनावी राजनीति तथा असमानता एवं शोषण को दूर करने वाले सामाजिक एवं
आर्थिक सुधारों के कारण संभव हो सका है| शिक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी, औद्योगिकीकरण,
आर्थिक विकास, समाज सुधार तथा सर्वकल्याणकारी न्याय के माद्यम से परिवर्तन हो सका,
और जातिप्रथा की जड़े कमजोर होती दिख रही है| अनुसूचित जाति यानि की दलित-अस्पृश्य
समाज, जो सदियों से उपेक्षा के
कारण अलग-थलग रखा गया अर्थात उन्हें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक
लाभों से वंचित रखा गया, उनको सामाजिक शोषण और अत्याचारों को सहना पड़ा| यहाँ तक कि
शिक्षा से भी वंचित होना पड़ा| भूमिहीन तथा निर्धनता-रेखा के नीचे आने वाले अधिकांश
लोग अनुसूचित जाति के हैं| समाज ने उन्हें गंदे एवं कठिन कार्यो को पकड़ा दिया| अति
निम्न सामाजिक परिस्थिति एवं सामाजिक शोषण के शिकार होने के कारण उनकी निम्न
मजदूरी को उचित ठहराया जाता रहा| उनको धार्मिक शोषण का भी सामना करना पड़ा| पहले
उन्हें प्रशासन एवं सार्वजानिक सेवाओं में भाग लेने का अधिकार भी प्राप्त नहीं था|
इस परिस्थिति के बारे में गांधीजी ने कहा है, ‘सामाजिक दृष्टि से वे गुलामों से भी
बदतर हैं धार्मिक दृष्टि से उन्हें ‘भगवान् के घर’ में प्रवेश करने की मनाही है|
उन्हें सार्वजानिक मार्ग, विद्यालय, अस्पताल, नलों, पार्कों आदि का उपयोग करने का
निषेध है| कुछ मामलों में निश्चित दूरी के भीतर उनका प्रवेश वर्जित है और
कहीं-कहीं उनका दर्शन भी सामाजिक अपराध है| नगर हो या ग्राम, सर्वत्र अत्यंत
निकृष्ट कोटि के मकानों में उन्हें रहना पड़ता है, जहाँ उनकी सामाजिक सेवाओं की कोई
व्यवस्था नहीं रहती| सवर्ण हिन्दू वकील और डाक्टर उनकी न तो वकालत करते है, न
चिकित्सा| धार्मिक उत्सवों पर ब्राह्मण उनकी पुरोहिती भी नहीं करते|’ ये सभी
गांधीजी की कही हुई बातें यहाँ चर्चा की गयी आत्मकथाओं में आपको प्रस्तुत होती दिखेंगी|
हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना में ही ‘सामाजिक,
आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय, विचार, अभियक्ति, विश्वास, मान्यता एवं पूजा पद्धति की
स्वतंत्रता, स्तर एवं अवसर में समानता, भातृभाव, व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की
एकता एवं अखंण्डता विषयक तत्व निहित हैं| अनुसूचित जाति के साथ हो रहे अन्याय को
रोकने के लिए संविधान के अनुच्छेद ३४१ के अनुसार प्रावधान किया गया है| संशोधन
अधिनयम(१९९०) के अंतर्गत अनुच्छेद ३३८ के तहत नियुक्त किये जाने वाले विशेष
अधिकारी के स्थान पर राष्ट्रीय अनुसूचित जाति तथा जनजाति आयोग बनाया गया है| इसमें
राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाने वाले अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के साथ पांच सदस्य
नियुक्त किये जाते हैं| आयोग इस वर्ग की सुरक्षा तथा कल्याण के कार्यकमों की योजना
बनाकर विकास कार्यक्रमों का मूल्यांकन करते है| संवैधानिक सुरक्षा के उपायों के
क्रियान्वयन की जाँच के लिए भी सरकार ने तीन संसदीय समितियां गठित की हैं| स्वयंसेवी
संगठनो को बढ़ावा देने हेतु सरकार अनुदान भी देती हैं| छुआछुत की कुप्रथा को रोकने
के लिए १९५५ में बने कानून के दंडात्मक प्रावधानों को आज और कड़ा कर दिया गया हैं|
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम को १९७६ में संशोधित कर लागू भी किया गया है|
अत्याचार के निवारण हेतु अधिनियम १९८९ से लागू है| इस अधिनियम के अंतर्गत प्रभावित
लोगों के लिए राहत और पुर्नवास की भी व्यवस्था की गयी है| अनुसूचित जाति के विकास
हेतु उनके बच्चों को छात्र-वृत्ति और आर्थिक सहायता भी दी जाती हैं| ऐसे कई
प्रावधानों से सरकार ने दलितों के संरक्षण सुनिश्चित करने का प्रयास किया हैं| इसके
अलावा राज्य अनुसूचित जाति वित्त तथा विकास निगम के लिए प्रशासनिक तथा संस्थागत
प्रावधानों का अंगीकरण भी किया हुआ हैं| सामाजिक विकास का तात्पर्य समतामूलक न्याय
के साथ-साथ राष्ट्र के आर्थिक प्रगति का कारण आर्थिक रूप से सुरक्षित जीवन यापन
है| समाज व्यक्ति को स्वेच्छापूर्वक जीने का अधिकार प्रदान करता है| भारतीय
संविधान में औपचारिक तौर से अस्पृश्यता दूर हुई है, पर उसके बावजूद भी समाज के
लोगों के वर्तन-व्यवहार में अस्पृश्यता की भावना अभी भी जीवित है| फिर भी अपनी
पहचान स्थापित करने की, वर्णव्यवस्था को बदलकर सामाजिक न्याय की स्थिति को स्थापित
करने की इच्छा एवं चेतना काफी समय के बाद दलित लोगों में नजर आती हैं| वो एक अच्छे
संकेत की ओर इशारा करती है|
गुजरात राज्य की १९६० में स्थापना के बाद शिक्षण और नौकरी
में आरक्षण के पालन से दलितों को समाज और साहित्य में अपनी बात रखने की एक दिशा मिल
गई| गुजरात में दलित आन्दोलन शुरू हुआ उसके दो दशक पहले से महाराष्ट्र में दलित
पेंथर आन्दोलन शुरू हो चुका था| ज्योतिबा फूले, बाबासाहेब आम्बेडकर और गांधीजी
जैसे महानुभावो के प्रयासों और प्रेरणा से आज दलित समाज और साहित्य में काफी हद तक
प्रतिबद्धता और प्रभावशीलता दिखायी देती है| १९८५ में अनामत विरोधी आन्दोलन के
कारण दलित जनता की वेदना को आवाज मिली| यहाँ दलित जीवन में आते प्रश्न जैसे कि
अस्पृश्यता, असमानता, शोषण, व्यथा, दर्द, गरीबी को दुनिया के समक्ष स्थान मिला; पर
फिर भी आज इतने प्रयासों और समय के बाद भी स्थिति ऊपरी तौर पर भले ही अच्छी लगती
हो पर वास्तविकता तो अगल दिखती है, क्योंकि आत्मकथा तो सच ही बोलती है|
गुजराती दलित साहित्य में बहुत कम साहित्यकारों ने आत्मकथा
पर अपनी कलम चलाई हैं| उसमें ललित परमार की ‘आत्मकथा’, बी.केशवशिवम् की
‘पूर्णसत्य’, पी.के.वालेरा की ‘थोरनुं फूल’ और विठ्ठल राय की ‘बजता जाये एक तारा’
प्रमुख आत्मकथाएँ हैं| फिर भी ये कहना ठीक होगा कि ये सभी आत्मकथाएं बुनकर, गारो
ब्राह्मण जैसे दलितों में भी उच्च वर्ग माने जाने वाले लोगों ने लिखी है, अभी भी
इस समस्या के गर्भ तक जाना बाकी है| आज भी शहर के मुकाबले ग्रामीण समाज में छुआछूत
का यह जहर ज्यादा फैला हुआ है| इस बात का प्रमाण ‘थोरनुं फूल’ आत्मकथा में मिलता
है, “में ११वी कक्षा की परीक्षा देने अहमदाबाद आया... वहा के शहरी जीवन में
जातिवाद की झांकी देखने को नहीं मिलती, बाल काटने की या खरीदने की दुकाने सभी के
लिए खुली थी, ये देख मुझे गाँव छोड़कर शहर आने का मन होता था, क्योंकि यहाँ अस्पृश्यता
की वेदना और दर्द नहीं था|(पृ.१२७)
ललित परमार जो, गुजरात के ईडर क्षेत्रे के एम्.एल.ए. रह
चुके है, उन्होंने दलित संतान और दलित युवक के रूपमें अपनी जिन्दगी और उसके अनुभव
तथा उसमें महसूस की गई परेशानियों की बात ‘आत्मकथा’ नामक पुस्तक में लिखी है|
उन्होंने इस आत्मकथा में अपने सामान्य आदमी में से प्रचलित नेता बनाने तक का सफ़र
और अपनी अशिक्षित पत्नी को पढ़ाने के साथ एक अच्छे जीवनसाथी बनने तक की यात्रा को
दर्शाया है| वह १९८१ से १९८५ तक गुजरात सरकार में मिनिस्टर रह चुके है इस अवधि के
दौरान गुजरात ने आरक्षण विरोधी दो आन्दोलन देखे हैं, जब दलितों को इस आन्दोलन का बुरी
तरह उसका सामना करना पड़ा था तब दलितों को सलाह के तौर पर उन्होंनें कहा था,
“हरिजनों को आलस्य छोड़ना पड़ेगा| बच्चों को शिक्षा देनी पड़ेगी| एक पीढ़ी को अपना भोग
देना पड़ेगा| दर्द सहना पड़ेगा किन्तु नयी पीढ़ी को तैयार करनी पड़ेगी...शोषण नहीं सहना
है, अन्याय नहीं सहना है..अच्छा जीवन जीना है, जिससे सब लोग हमें आदर से देखेंगें|
आर्थिक रूप से समर्थ होना पड़ेगा, संस्कारिता प्राप्त करनी पड़ेगी, सुव्यवस्थित जीवन
जीना पड़ेगा और परिश्रम करना पड़ेगा, ये सब हरिजनों के लिए अत्यन्त आवश्यक बात है|”(आत्मकथा-ललित
परमार-पृ.१६७)
दाह्याभाई दीनबंधु की २००१ में प्रगट हुई ‘जीवन संघर्ष:एक
आदर्श क्रांतिकथा’ आत्मकथनात्मक लेखन में उन्होंने दलित होनी की वेदना को कड़े
शब्दों में व्यक्त किया है| पथ-पथ पर अस्पृश्यता के कारण मिले धिक्कार और घृणा से
उनके मन को जो चौट लगी है, उस व्यथा को इस कथा में व्यक्त किया गया है| ये आत्मकथा
के बारे में नटुभाई परमार कहते है कि, ‘आधुनिकता के युग में अस्पृश्यता भी नये
स्वरुप में दिखाई देती है, तब पुराणी पीढ़ीने अस्पृश्यता के कैसे दर्द को झेला है,
उसकी नई दलित पीढ़ीने तो कल्पना भी नहीं की होगी| उस परिस्थिति में दाह्याभाई की
आत्मकथा सही तौर पर ऐतिहासिक दस्तावेजी मूल्य रखती है|’ इस आत्मकथामे उन्होंने ७५
वर्ष के जीवनकाल में घटित घटनाओं का आलेखन किया है| इस आत्मकथा में अस्पृश्यता को
दूर करने के लिए उन्होंने जो संघर्ष किया उसका आलेखन और अस्पृश्यता निवारण
कार्यक्रम के दंभ को उजागर कर दुनिया के सामने लाने की कोशिश की है, उसका तीव्र बयान
मिलता है|
गुजराती साहित्य में ‘समाजमित्र’ नामक एक पत्रिका का
प्रकाशन कई सालो से हो रहा है जिसने दलित साहित्य को समाज के समक्ष प्रगट करने में
महत्वपूर्ण योगदान दिया है | वह समाजमित्र पत्रिका अप्रैल, २००२ का दलित आत्मकथा
विशेषांक था, जिसमें ५२ जितने दलित साहित्यकारों, समाज सेवको और कई जागृत दलित
व्यक्तियोंने अपने निवेदन और अनुभव, इस पत्रिका के माध्यम से प्रगट किये हैं| यह
प्रगट करते समय पत्रिका की तंत्री लिखती है, “मराठी साहित्य की तुलना में गुजराती
दलित साहित्य में आत्मकथा और नाटक के स्वरुप में कुछ ख़ास काम हुआ नहीं है|”(समाजमित्र-दलित
आत्मकथा विशेषांक,अप्रैल २००२) आज भी १० साल बाद हमे कुल मिलाकर १० दलित आत्मकथा
भी प्राप्त नहीं हुई है, गुजराती दलित साहित्य के लिए दु:खद सच है|
बी. केशरशिवम् के पास से हमें ‘पूर्णसत्य’ आत्मकथा मिलती
हैं| सभी गुजराती दलित आत्मकथाओं में से ये आत्मकथा का टोन सबसे ऊँचा है| ये
आत्मकथा में कई जगहों पर हमें सामाजिक अन्याय के विरुद्ध रोष दिखाई पड़ता है| ये एक
सामान्य खेत कामदार – मील मजदूर की कथा है जिसने पढाई करके आगे जा कर अपनी मेहनत
और लगन से मामलातदार से अधिक कलक्टर तक का सफ़र तय किया है| ये आत्मकथा में,
जिन्दगी के सफ़र में आई परेशानियाँ, यातनाएं, समाज से मिली घृणा – अवहेलना, यहाँ तक
कि सरकारी नौकरी में भी दलित होने के कारण बढ़ोतरी में आई काठनईयां और उससे जुड़े करूण
सच को उजागर किया गया है| इसीलिए हरीश मंगलम इस आत्मकथा को ‘दलित की मोघेरी वस्’
कहते है| जबकि, दलपत चौहान इस के बारे में लिखते है कि ‘दलित वेदना की अनुभूति की
अभिव्यक्ति लेखक के द्वारा बहुत अच्छी तरह से हुई है| अन्य लोगो के द्वारा दलितों
पर हुए अन्याय, अत्याचार लेखक की नजर से बच नहीं पाए, वो उनका अतिरिक्त गुण बनता
है| इस आत्मकथा की लोकभाषा भी पाठको को पसंद आए वैसी है|’ ये हमें आत्मकथा पढ़ते
समय महसूस होता है| ‘सरकार के जमाई’ के कटाक्षयुक्त संबोधन से पीड़ित दलित समाज में
पढ़े-लिखें दलित लोग व्यक्तिगत रूप से कई बार अपनी पहचान छुपाते रहे है, जिससे
उन्हें और उनके परिवार को अवहेलना का दर्द न सहना पड़े| बी. केशरशिवम् ने तो यहाँ
तक कहा है कि मैंने आपनी सरनेम भी बदल दी| लेखक अपने साथ पढ़ते सवर्ण बच्चों से, हीनता
की भावना से प्रेरित हो कर अपनी बाल मजदूरी की बात को छुपाके रखा| वो इस आत्मकथा
में लिखते है, ‘शिक्षित होने के बाद लोग दुगने जोर से अस्पृश्यता को मानने लगते है|’
‘पूर्णसत्य’ आत्मकथा के बारे में केसुभाई देसाई पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते
है, ‘ये व्यथा सिर्फ भीखा शिवानी की नहीं रही पर समग्र भारतीय दलित समाज की बन गई
हैं| आज भी ऐसे करोडो भीखा अवहेलना की बॉन मिलो में हडिड्यों के ढेर तले सड़ते
होंगे|’ दलित समाज की परिस्थिति का वर्णन आत्मकथाकार इस तरह से करते है, “मेरे मोहल्ले
में से लोग रेलवे में हड्डियां भरने जाते....बदबू की तो उनके नाक को आदत हो जाती है...
हडिड्यां में खद्बदते कीड़े देखने की भी आदत हो जाती है| पेट की भूख मिटाने के लिए
वह उस बदबू और नरक जैसी जिन्दगी को भी अपना लेते हैं|”(पूर्णसत्य- बी.केशरशिवम्-
पृ.१६) गरीबी तो ऐसी कि घी तो न कभी घर आया न तो कभी दूध पीने को मिला| दलितों के
प्रति हो रहा अन्याय दर्शाते उदाहरण देते लेखक कहते है, मिल में दलितों के अलग
विभाग होते है, दलित चाय की दुकान पर सवर्ण आते नहीं, दलितों का अलग मंदिर होता
है, कुए में से अपने आप पानी भी पी नहीं सकते, अच्छे कपडें नहीं पहन सकते, औरतों
को माथे पे पल्लू रखना पड़ता, खुले पांव ही गाँव में चलना है, पाठशाला में सभी
बच्चों के साथ पानी भी नहीं पी सकते और उनको छू भी नहीं सकते, सवर्ण अपने गाँव के
तालाब में अपने पशुओं को पानी पीने दे सकते है पर दलितों को नहीं, कई जगह बस में
बैठ भी नहीं सकते, सवर्ण दलित कुए में कचरा डालते तो कुछ कह भी नहीं सकते इत्यादि
कई प्रकार के अत्याचारों की करूण दास्ताँन से ये आत्मकथा भरी पड़ी हैं| एक जगह तो
एक भिखारिन भी दलितों का जूठा खाना न लेकर फैंक देती है तब लेखक लिखते है कि
‘हमारा सामाजिक स्तर तो निरक्षर भिखारी से भी निम्न है|’ आत्मकथाकार गुजरात
प्रशासनिक सेवा में थे तो उनके अनुभव को इस आत्मकथा में उन्होंने व्यक्त किया है,
जिसमें, जहाँ जहाँ ट्रांसफर होती वहां दलित होने की वजह से कोई किराये का मकान
नहीं देता था, एक बार मुस्लिम का घर किराये पर लेना पड़ा और एक बार भाड़े पर दुकान
में भी रहेना पड़ा| वह कहते है कि, जातिवाद हर जगह ऐसे फैला हुआ है कि हमें
की-पोस्ट नहीं दी जाती, दलितों को पिछड़े और आदिवासी विस्तारो में पोस्टिंग दी जाती
है| उनको पदोन्नति देते समय भी कई तरह की बाधाऐं पैदा की जाती है| उन्होंने तो
यहाँ तक कहा है कि पंचायत में आरक्षण होने की वजह से दलितों को पंचायत में स्थान
तो देना पड़ता है पर इज्जत और मान-सन्मान नहीं मिलता| आम्बेडकर द्वारा चलाई हुई
मुहिम से दलितों को अधिकार मिलता है पर आज भी स्वीकृति नहीं मिल पाती| दलित उत्थान
की बाते आज भी फेशन बनी हुई है साथ ही इलेक्शन के वक्त उनका राजनैतिकता में वोट
बेंक की तरह उपयोग किया जाता है| इसीलिए लेखक इस आत्मकथा में लिखते है, “दलित समाज
में जन्म लेने से मेरे तो बारा ही बज गये थे|”(पूर्णसत्य- बी.केशरशिवम्- पृ.१५७)
इसी त्रासदी के कारण आज के दलित समाज के लोग गाँव से शहर में स्थायी हो रहे है| दलित
होने के कारण उनको जो दर्द सहना पडा हैं और उनके विकास में जो बाधाएं या अन्तराय
आते रहे है उन सबकी वितक कहानी है ये ‘पूर्णसत्य’|
पी.के.वालेरा की आत्मकथा
‘थोरनुं फूल’ भाग १ से ३ - गुजराती दलित साहित्य में सबसे विस्तृत और उल्लेखनीय आत्मकथा
मानी जाती है| ‘समाजमित्र’ के जनवरी २००४ से जनवरी २००५ तक उसका पहला भाग प्रसिद्ध
हुआ था| दलित परिवार में जन्मे पुरुषोत्तम वालेराने बचपन में जो घर की दारिद्र्य
परिस्थिति देंखी और जो समाज की तरफ से मिली सामाजिक घृणा को सहा उसका तो बयान इस
आत्मकथा में किया ही है पर वह सब बाधाओं को पार कर, पढें और आगे बढ़ें साथ ही
गुजरात की प्रशासनिक सेवा में उच्च पद को प्राप्त कर आपने समाज की आनेवाली पीढ़ी के
लिए एक मिसाल बने| उनके साथ हुई अवहेलना के बावजूद ये आत्मकथा में उनकी भाषा में
कठोरता का ज्यादातर अनुभव नहीं होता, उनके कहने के मुताबिक ये अस्पृश्यता की
परिस्थिति ज्यादातर इन समाजो के लोगों ने स्वीकार की हुई हैं| वह इस परिस्थिति को
अपनी नियति मान चुके है आज के इस आधुनिक युग में हमें सिर्फ दलितों को अपने
अधिकारों के प्रति जागृत ही नहीं करना है अपितु उनकी ये सोच और अपने निम्न स्तर के
प्रति स्वीकार की भावनाओं की मानसिकता को भी जड़ से बदलना है| अपने संविधान में
दलितों को जो सरंक्षण मिला है उसका भी और आम्बेडकर की शुरू की गई मुहिम का भी
उद्देश्य यही है कि सदियों से शोषित इस समाज को न्याय मिल सके| इस आधुनिक युग में
सही मायनो में मानवता की रक्षा का और मानव अधिकारों के उद्देश्य सिद्ध हो सके| दलित
समाज की स्थिति को चित्रित करते हुए आत्मकथा में लिखा है, “मृत पशुओ को गाँव से
खींचने की वंशपरम्परगत प्रथा को अस्पृश्यों पर थोपी गई| भूख और नि:सहायता के कारण
मृत पशुओं की चरबी को उबालकर जो घी जैसा पदार्थ मिलता है उसे संगृहीत किया जाता
था| उसे ‘ओह’ कहा जाता था| अच्छे प्रसंग पर उसका आनन्द उठाया जाता था|...”(पी.के.वालेरा–
थोरनुं फूल भाग-१) इस गरीबी के साथ वालेराजी लिखते है कि, जन्माष्टमी, दीवाली जैसे
त्योंहारों में घर में आनंद-उल्लास रहता पर उसके बाद शुरू होती वही दुनिया की
परेशानियाँ और दर्द| अपने अस्पृश्यता के अनुभव कहते हुए लेखक कहते है, “मैं इतने
परिश्रम के बावजूद हमारे शरीर पर ढंग के कपडे नहीं मिलते और उनके खाने के डिब्बे
में भी अच्छी सब्जी या दाल नहीं होती थी |’(पी.के.वालेरा– थोरनुं फूल भाग-१-पृ.८३)
इसके आलावा भी ज्यादातर सभी आत्मकथा में मिलता ये वर्णन कि, पीने के पानी में हुआ
हंगामा, मिल में सवर्ण और दलित मजदूरो के बिच मिलता भेदभाव की बात उनके साथ किये
गए अन्याय की पुष्टि करता हैं| त्यौहार के दिन का वर्णन करते लेखक लिखते है कि,
“गाँव में उच्च वर्ण के घर हमे मांगने जाना पड़ता था चाहे हम सुखी हो या नहीं, वो
उस दिन हमें अच्छा खाने को देते थे...इस समय के बाद हमें दाल-चावल खाने को तो क्या
देखने को भी नहीं मिलता था...वैसे तो ये त्यौहार हमारे लिए ‘भीख’ का त्यौहार था|”(पी.के.वालेरा–
थोरनुं फूल भाग-१- पृ.७५) वे कहते है कि पढने-लिखने के बाद हमने तो इस प्रथा को
अपने घर से समाप्त कर दिया पर, “आज भी हमारे गाँव में ये प्रथा कई गरीब घरो में
चलती हैं | क्योंकि ये सोच को दलितों ने स्वीकार कर ली है कि हम अछूत है, निम्न
वर्ण के है, हम सवर्ण को नहीं छू सकते,... ये सब भगवान ने बनाया हैं....”
(पी.के.वालेरा– थोरनुं फूल भाग-१- पृ.३६) ये छुआछूत की बेडियों ने उनको इस कदर
जकड़ा हुआ है कि वे खुद ही ये दूर रहना पसंद करते है, अपने आपको हीन् समझते हैं|
लेखक इस स्थिति पर अपना रोष प्रगट करते हुए कहते है, “अछूतों को सदीयों से मिला है
पशुवहन का बोज, मृत पशु के मांस के टुकड़े और छुआछूत का अभिशाप”(पी.के.वालेरा–
थोरनुं फूल भाग-१- पृ.१२) मेहनत करके बदन टूट जाता और दर्दो की दुनिया में शरीर
घुल जाता| ऐसी बद्दत्तर जिंदगी में भी आगे बढ़कर लेखनकार्य करना, वो भी कलात्मकता
के साथ और दूसरो के लिए उदाहरण(प्रेरणा) बनना इस समाज के गर्व की बात है|
गुजरात सरकार के एक अफसर
विठ्ठल ‘राय’ ने ‘बजता जाये एक तारा’ नामक आत्मकथा लिखी है| उसमे उन्होंने आपने
जन्म से लेकर निवृति के बाद के जीवन और पारिवारिक उन्नति की बात की है जिसमे दलित
समाज की वेदना सामाजिक वातावरण आ ही जाता है, परिवेश – पृष्ठभूमि कहाँ बदलती है?
उनकी आत्मकथा के बारे में कान्ती रामी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते है, ‘सीधी
गति से, अपनी निर्धारित मंजिल की और पूरी हकारात्मकता से चलते रायजी को पल-पल
गिराने की कोशिश करते ठाकर जैसे अधिकारी तो यहाँ वर्णव्यवस्था के दूषण – दूरित एक
प्रतीक मात्र है|’ इस आत्मकथा में लेखक ने जो बयान किया है उसमे तो उनके बड़े भाई
को सिर्फ इसलिए पीटा गया कि वे दलित हो कर भी पढ़े-लिखे थे और अच्छे कपडें पहनते
थे, और सवर्ण के लोग जब उनको पीट रहे थे तब हरिजनवास में से न कोई बचाने आया न ही
गाँव में से कोई बचाने आया | इसके आलावा अपनी और पूरे दलित समाज की आर्थिक
परिस्थिति की बात करते समय वे आत्मकथा में लिखते है कि दलित समाज अपने हरेक प्रसंग
उधार लेकर ही कर पता था | तथा गाँव में जब भी कोई पशु मर जाता तो पूरे महोल्ले के गरीब
कुटुंबो का पांच-छः दिन का गुजरा हो जाता| वड़ोदरा में सयाजी शासन के दौरान दलितों
के लिए गाँव में शाला भी बनी थी क्यों कि दलित बच्चों को गाँव की साला में प्रवेश
की अनुमति नहीं थी| उनको मुस्लिम शिक्षक पढाया करते| गाँव में कुछ लेने जाते समय
की परिस्थिति व्यक्त करते लिखा है, ‘गाँव के पटेल या बनिए की दुकान पर से ऊपर से
वस्तुए लेनी पड़ती जिससे की उनको हम छू न पाए|’ एक बार तो ये अवहेलना के कारण आत्मकथाकार
पढाई में भी पीछे रह गए थे| एक बार उनको रेलवे स्टेशन पर प्यास लगी थी तो परब से
पानी पीने पर हंगामे का सामना करना पड़ा| आत्मकथा में एक जगह लिखा है कि परब से
पानी पीने के लिए हरिजन लोगों को परब के पास रखे पतरे में से पानी पीना पड़ता था,
और जब वो कुए के पास पानी लेने जाये तो हरिजन को सवर्ण लोग के पास पानी मांगना
पड़ता था, जो सवर्ण अच्छा हो तो घड़े से पानी देता वरना धुत्कारकर वहां से हटा देता|
कोई हरिजन सवर्ण से लग्न करने की सोच नहीं सकता वैसे अनुभव और अवहेलना के उदाहरण
भी इस आत्मकथा में मिलते है| आज भी कई जगह पर दलितों को विकास – शिक्षण के कार्य
में भाग लेने की अनुमति नहीं है, वे मंदिर में जा नहीं सकते, सवर्ण की होटल में जा
नहीं सकते क्योंकि वे अभी भी डर और हीनता की भावना से मुक्त नहीं हो पाए| सरकार की
अनुसूचित जाति को लाभ प्रदान करने की नीति और संवैधानिक संरक्षण मिलने से कई दलित
परिवार की स्थिति में काफी सुधार आया है, पर ये नीति तो सवर्ण नकारात्मक तरीके से
देखते है, जब विठ्ठलजी को पढाई में स्कोलरशिप मिली और वो लेने गए तो उनको ‘सरकार
के जमाईराज’ कह के कटाक्ष में संबोधन किया गया| सरकारी सेवा में भी हरिजन अधिकारी
की कार्यकुशलता पे कई सवाल खड़े किये जाते है, वे आलसी होते है या फिर वे कुशल नहीं
होते इत्यादि.. या फिर बढ़ोतरी में उनको मौका ही नहीं दिया जाता| सरकारी अफसर होते
हुए भी जहाँ उनकी पोस्टिंग हुई हो वहा अच्छे मोहल्ले में उनको रहने तो घर भी कोई
देता नहीं है फिर मुस्लिम लोग के घर किराये पर लेने पड़ते थे| आपने साथ हो रहे इस
वर्तन-व्यवहार के बारे में शिक्षित दलित समाज के बच्चें जब अपने माता-पिता से कारण
पूछते है तो इस जाति प्रथा की एक अलग तस्वीर देखने को मिलती है|
ये सभी आत्मकथाओं के आलावा भी बबलदास चावड़ा की ‘पायानो
पथ्थर’ आत्मकथा में समाज के प्रति एक निराशावादी रुख दिखायी पड़ता है| उन्होंने
आत्मकथा में धर्म, संस्कृति के नाम पर सदियों से चल रही अज्ञानता और भेदभाव के
बारे में वक्रता से लिखा हैं| नटूभाई परमार की ‘मनस्थ’ आत्मकथा भी इसी दौर में
मिलती है| समाजमित्र के अप्रैल २००२ के विशेषांक के आलावा इस क्षेत्र में दलित
साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘हयाती’ पत्रिका का मार्च-२०१२ के भारतीय दलित
नारी लेखन विशेषांक में गुजराती दलित लेखिका चंद्राबेन श्रीमाली की ‘काश ! हूँ
मोडी पड़ी न होत..’ के स्वरुप में गुजराती दलितनारी का आत्मकथनांक मिलता है|
ये सभी आत्मकथाओं का अभ्यास करने के बाद कई बातों में समानता दिखने को मिलती
है जैसे कि,
·
जीवन में जन्म से
मिली गरीबी| सभी साहित्यकारों ने भूख और निर्धनता का बीभत्स चित्र प्रस्तुत किया
हैं| जिसके परिणामस्वरुप कई बार मृत पशु के मांस को भी खाना पड़ा है|
·
दलित लोगों के
प्रति सवर्ण समाज का आक्रमकरूप हमें देखने को मिलता है, जहाँ एक छोटी सी गलती के
लिए हंगामा होता हो और दलित व्यक्तियों को बेरहमी से पीटना जायज माना जाता हो|
·
ज्यादातर इन
आत्मकथाओ में, समाज में हो रहे अन्याय को अपने परिवार के संदर्भ में तथा अपने साथ
हुए सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक अन्याय के तौर पर आलेखित करना प्रमुख मुद्दा रहा
हैं|
·
यहाँ स्त्रियो के
ऊपर हो रहे अत्याचारों के बारे में बहुत कम बातें लिखी गई है| सभी आत्मकथा में
आपने परिवार की स्त्रियो के सन्दर्भ में ही उल्लेख मिलता हैं| ‘पूर्णसत्य’ में एक
जगह सवर्ण द्वारा रात को दलित विस्तार में जा कर पति और ससुर के सामने दलित औरत पर
बलात्कार की घटना का चित्रण मिलता है|
·
यहाँ जीवन में उनको
मिला हुआ सामाजिक स्तर और उसकी अच्छी और बुरी असर को तो दर्शाया गया हैं इसके
उपरांत सामाजिक रीतिरिवाज, परंपरा, जड़ रुढिवादिता के संदर्भ में चर्चा की गयी हैं|
कई जगह पर त्योहार, तौर-तरीके, लोकजीवन और ग्रामीण जड़ मानसिकता को दर्शाया गया हैं|
·
शिक्षण को
प्राप्त करने में आई कठनाइयाँ तथा निम्न जीवन स्तर से लेकर एक बेहतर जीवन तक पहुँचनें
के सफ़र, सामर्थ्य, शक्ति और परिश्रम को उल्लेखित किया गया हैं|
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दलित जीवन में
बड़े पैमानें पर फैला भूख, पीड़ा, व्यथा, शोषण और अत्याचार का वेधक आलेखन मिलता हैं|
परन्तु यह भी सत्य है कि जो ये आत्मकथाकारो ने लिखा है उसमें आदर्शवादिता तथा बेहतर
जीवन का आशावाद ज्यादा दिखाई पड़ता है|
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जैसा कि दलित
कविता और वार्ता में विद्रोह की चरम सीमा दिखायी पड़ती हैं वैसी आन्दोलनकारी आक्रामकवृत्ति
का इस आत्मकथाओं में ज्यादातर अभाव दिखाई पड़ता है|
ये सब देखने के बाद आज भी कई जगह मानवता का हनन साफ़ तौर पर दिखाई पड़ता है,
इतने कानून के बावजूद, बंधारण के संरक्षण के बावजूद, शिक्षण के उच्च स्तर के
बावजूद समाज में दलितों को सामानांतर स्थान मिलना अभी भी दूर दिखाई पड़ता है | शायद
हम एक बात से संतोष ले सकते है कि ये जो सब लोग है जिन्होंने आत्मकथा लिखी है
आजादी के वक्त की या फिर उसके तुरंत बाद के समय की बात ज्यादातर आपनी आत्मकथा में
लिख रहे है, नई पीढ़ी की संवेदना अभी आनी बाकी है| सदियों से चली आ रही इस प्रथा को
तोड़ पाना अभी भी कठिन हो रहा है तब पढ़े-लिखें समझदार लोगो की जिम्मेदारियां बहुत
बढ़ जाती है कि हम ये छुआछूत के भेदभाव को ख़त्म करने की शुरुआत तो करे| भारत के
आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक संक्रमणकालीन चरणों के संदर्भ में खामियों के चित्रण
तथा आस्वादन से बचना चाहिए, खासकर सामाजिक न्याय को कार्यान्वित करने वाले
संस्थागत तथा प्रशासनिक ढांचे में| श्री दयानन्द सरस्वती ने दलितों को समान मान कर वेद-पाठ, जनेऊ धारण करना और
होम-हवनं करने की छूट दी थी| वे मानते थे कि अन्त्यज भी मानवी है, उनको भी मानव जैसा
जीवन जीने का हक मिलना चाहिए| यह होगा तो ही सामाजिक न्याय की मुहिम और उसके कानून
सही मायनो में अपना सही कार्य कर सकेगी|
संदर्भ:-
गुजराती पुस्तकें:-
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आत्मकथा ललित परमार १९९७
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आधुनिकोत्तर साहित्य संपा. सुधा निरंजन पंड्या २००६
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अभियोग (दलित
आत्मकथा ‘पूर्ण सत्य’) बहेचरभाई पटेल २००७
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गुजराती दलित
साहित्य : संपा. मोहन परमार और २००१
स्वाध्याय और समीक्षा हरीश
मंगलम
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गुजराती दलित
साहित्यनी कड़ीए दलपत चौहान २००८
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जीवन संघर्ष दाह्याभाई दीनबंधु २००१
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थोरनुं फूल (भाग
१ से ३) पी.के.वालेरा २००७,२०१०,२०१२
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दलित साहित्य :
अभ्यास और अवलोकन संपा.गुणवंत व्यास २००८
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दलित साहित्य
आन्दोलन डो. चन्द्रकुमार वरठे २००३
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दलित साहित्य की
रुपरेखा संपा. नाथालाल गोहील २००८
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पूर्णसत्य बी.केशरशिवम् २००२
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बजता जाये एक
तारा विठ्ठल ‘राय’ २००९
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मनस्थ नटूभाई परमार २००७
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साहित्य और समाज विद्युत जोशी २०१२
हिंदी पुस्तकें:-
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दलित और अश्वेत
साहित्य कुछ विचार संपा. चमन लाल २००१
अंग्रेजी पुस्तकें:-
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Dalit literary
tradition in Gujarati: A Critical study-M.B.Gaijan-2007
·
Gujarati Dalit
Literature A Critical Study - B.S.Nimavat 2012
पत्रिकाएँ:-
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समाजमित्र (दलित
आत्मकथा विशेषांक) अप्रैल-२००२
·
हयाती (भारतीय
दलित नारीलेखन विशेषांक) मार्च-२०१२
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