Wednesday, 7 March 2018

“अफ्रीकन अमेरिकन और भारतीय दलित साहित्य के आत्मकथनात्मक उपन्यास का तुलनात्मक अभ्यास”

(Abstract):- साहित्य अपने आसपास के समाज को प्रतिबिंबितकरके अपने में संजोता है उस दृष्टि से विश्व के वंचित और हाशियें में जा चुके लोगों की वेदना को अभिव्यक्त करना जरुरी है| साहित्य ही एक माध्यम है जो अपने आसपास के परिवेश की कलात्मकता से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करता है| साहित्य नए विचार और संवेदन को समाज में निरंतर प्रवाहित रखता है| आफ्रीकन अमेरिकन और भारतीय दलित साहित्य दोनों नव जागृत संवेदनशीलता के स्वाभाविक प्रतिबिम्ब हैं और कई नये आयामों से पारंपरिक महत्वपूर्ण सिद्धांतो को मूल से बदलने के लिए सोचनें पर विवश भी करते हैं| अफ्रीकन अमेरिकन और भारतीय दलित साहित्य में कई समानता देखने को मिलती हैं, जैसा कि, दोनों के साहित्य में साहित्यकार अपने-अपने माध्यम से अपने अस्तित्व की खोज करता है, दोनों साहित्य में वर्णित अनुभव और अभिव्यक्ति में सामाजिक विषमता मूलभूत कारण हैं, उनका दृष्टिकोण भी सामाजिक ही हैं, दोनों साहित्य, जीवन संदर्भ से जुड़े हुए हैं| अश्वेत और दलित दोनों के साहित्यकार अपनी पहचान सांस्कृतिक तौर पर आज भी ढूंढ रहे हैं| अश्वेत साहित्यकार अपने व्यापक अनुभव और अभिव्यक्ति की तीव्रता के कारण अपनी समस्याओं को वैश्विक स्तर पर समाज के सामने रखने में काफी हद तक सफल रहे है, पर भारतीय दलित अपनी जीवनी, व्यथा, पीड़ा, असंतोष, अवहेलना को बृहद स्तर पर ले जाने में उतने सफल नहीं हो पाए, वह भारतीय परिपेक्ष्य तक सीमित होते दिखायी देते हैं| वैसे कई विषय पर अफ्रीकन अमेरिकन और दलित साहित्य एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी दिखायी देते हैं, जैसा कि, दलित भारत निवासी हैं, जबकि अश्वेत साहित्यकर गुलामों के तौर पर पूरे विश्व में फैलें हुए हैं| अफ्रीकन अमेरिकन साहित्यकार जहाँ बस चुके हैं वहां, उस प्रदेश में अपने क़ानूनी अधिकारों के लिए लड़तें रहे जबकि भारतीय दलितों को तो भारतीय संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है पर वह सामाजिक समानता को प्राप्त करने के लिए लड़तें है| अफ्रीकन अमेरिकन और दलित साहित्य दोनों ने साहित्य के कविता, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा जैसे सभी साहित्यिक स्वरुप माध्यमो से अपनी स्थिति और आक्रोश को व्यक्त करने की पूर्ण कोशिश की हुई है| यहाँ ये संशोधनपत्र में अफ्रीकन अमेरिकन आत्मकथनात्मक उपन्यास ‘The autobiography of Ex-Colored Man(James Weldon Johnson), हिंदी दलित साहित्य का आत्मकथनात्मक उपन्यास ‘दोहरा अभिशाप’(कौशल्या बेसंत्री), गुजराती दलित साहित्य का आत्मकथनात्मक उपन्यास ‘अगनजाल’(हरीश मंगलम) और मराठी साहित्य का आत्मकथनात्मक उपन्यास ‘उचल्या’(लक्ष्मण गायकवाड़) ये चार आत्मकथनात्मक उपन्यास का तुलनात्मक अभ्यास करना मेरा मूल उद्देश्य है| जिसके माध्यम से अफ्रीकन अमेरिकन साहित्य और भारतीय दलित साहित्य का स्तर, चरित्र, सामाजिक-सांस्कृतिक परिपेक्ष्य और उससे जुड़े हर पहलु का तुलनात्मक अभ्यास किया जा सके और साहित्य के माध्यम से इन पीड़ितों का विद्रोह, क्रांति, चेतना और अस्तित्व की लड़ाई को समझ पाना आसान बन सके|
जिंदगी और जिंदगी से जुड़े सवालों के रूप में उत्पन्न समस्या, दु:ख, वेदना को मुखरित करनेवाले साहित्य में अश्वेत साहित्यकारों द्वारा हुए सर्जन को ‘ब्लैक लिटरेचर’ और भारत में दलितों द्वारा हुए सर्जन को ‘दलित साहित्य’ नाम दिया गया| सदियों से पिछड़े लोगों पर समाज जो अन्याय और अत्याचार करता आया हैं, उसका विरोध करना और कई अनछुए पहलु को उजागर करना ये साहित्य का मकसद हैं| शास्त्रों में भी कहा गया है कि, ‘जन्मना जायते शुद्र: संस्कारत् द्विजउच्चते’.(जन्म लेना हमारे बस में नहीं पर मनुष्य अपने कर्म से जाना जाता है|)
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में आफ्रीका के वायव्य कोने में से हजारों-लाखों की संख्या में अफ़्रिकीओं को उठा कर दूसरे देशो में ले जाया गया और वहां गुलामों के तौर पर उन्हें स्थापित किया गया| वह लोगों हमेशा से श्वेत लोगों की उपेक्षा और अवहेलना का शिकार बने| इन अश्वेत को मानवीय अधिकारों और समानता का दर्जा मिलने में कई सदियाँ लग गई, इनको दुनिया के अमेरिका या यूरोपियन जैसे देशों में न्यायिक अधिकार मिलना तो दूर पर एक स्वमानी जिन्दगी जीने का अधिकार भी बहुत देर से मिलना शुरू हुआ|  अफ्रीका के जंगलो में से स्थानिक भोले अश्वेतों को लुभाकर, लुभावने प्रस्ताव दे कर मैदानी विस्तारों में लाया जाता था| जहाँ उन्हें ‘वाडा’ में रखा जाता था| ‘वाडा’ मतलब वास, शेरी, महोल्ला| वहां आने के बाद उनकी अपनी कोई सामाजिक दुनिया नहीं होती थी, वे सिर्फ गुलाम थे, वह श्वेतो की निजी जायादाद समझे जाते थे| श्वेत प्रजा के लिए गुलामी प्रथा उपकारक थी, श्वेतों की समृद्धि अश्वेतों से बढती थी| बुकर टी. वोशिग्टन की आत्मकथा ‘Up from Slavery’ में वह मानते हैं कि ‘गुलामी’ अश्वेतों के अनुभव में नर्क समान थी| फिर भी वास्तव में तो जीवन शिक्षण देती संस्था भी थी| दुर्भाग्यवश, अश्वेतों को कई कड़वी वास्तविकता के पाठ सीखने बाकी थे वह वोशिग्टन समेत लाखों अश्वेत जानते थे|
अमेरिका के अश्वेतों के साहित्यसर्जन में समयांतर साहित्य के लगभग सभी साहित्यस्वरूपों में लिखा है, परन्तु उसमें भी सबसे ज्यादा सोंग्स और नेरेटिव्ज यानी आत्मकथननो में काम हुआ हैं| दास बनाने में गौरव का अनुभव करते श्वेत लोग अश्वेत स्त्रियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध भी स्थापित करते पर अपने परिवार में सामिल नहीं करते| ये अमेरिकन अफ्रीकन लोगों की जो वेदना, व्यथा और वास्तविकता हैं उसका बयान हमें साहित्य में मिलता है| इस साहित्य में गुलामी के अत्याचारों की कहानी तो मिलती ही है पर उसके साथ ही समाज का निर्मम दृश्य, समाज के दोहरे मूल्यों, श्वेत लोगों और अश्वेत लोगों के बीच सदियों से चली आ रही भेदभाव का वास्तविकता दुनिया में प्रस्तुत होती है| जेम्स वेल्डन जोनसन लिखित काल्पनिक आत्मकथा ‘धी ओटोबायोग्राफी ऑफ़ एन एक्स-कलर्ड मेन’ में श्वेत पिता और अश्वेत माता के संतान की, अपने जातीय पहचान के संघर्ष को दर्शाया गया है| ऐसी संतान को अमेरिका में ‘कलर्ड मेन’ कहा जाता है| लेखक को ब्लैक मेन कहलाने में शर्म महसूस होती थी जिससे वह अपने आप को श्वेत कहेलाता था इससे उनको काफी तरक्की और पैसे भी मिले| लेखक जीवन के आखिर समय तक अपने अस्तित्व को काले-गोरो के बीच ढूढता रहा| इस पुस्तक में कोई समस्या का हल नहीं है पर अमेरिका में अश्वेतों की  स्थिति और माहोल को प्रेक्षक के रूप में दर्शाया गया है जैसे उसका तुलनात्मक अध्ययन ही न हो! लेखक लिखते है, “I shall give the observations I made in Jacksonville as seen through the light of after years; and they apply generally to every Sourthen community. The colored people may be said to be roughly divided in three classes... There are those constituting what might be called the desperate class- the men who work in the lumber and turpentine camps, the ex-convicts, the barroom loafers.. . This class of blacks hate everything covered by a white skin, and in return they are loathed by whites... The second class, as regards the relation between blacks and whites, comprises the servants, the washerwomen, the waiters, the cooks, the coachmen, and all who are connected with whites by domestic service... Between this class of the blacks and the whites there is little or no fiction. The third class is composed of the independent workmen and tradesmen, and of the well-to-do and educated colored people; and, strange to say, for a directly opposite reason they are as far removed from the whites as the members of the first class I mentioned.”(Pg.55-57 The autobiography of Ex-Colored Man-James Weldon Johnson)
अमेरिका में गोर लोगों का हमेशा प्रयास रहा है की अश्वेत समृद्धि और सत्ता से वंचित ही रहे, वह ब्लैक मेन को सेकण्ड सिटिज़न मानते थे, अपने नौकर, वेटर, कुक, कोचमेन जैसे घरेलू सेवा के काम ही देते थे या फिर उनसे महनतवाले काम करवाते थे| काले लोगो की जिन्दगी गरीबी और मानवीय हक से वंचित थी, काले लोगों के विद्रोह करने की स्थिति में गोर लोग असलामती महसूस करते है; इसलिए गोर लोग हमेशा उन पर जुल्म ढाते थे| जिसके कारण अश्वेत लोग शिक्षण और तरक्की में काफी पिछड़े ही रह गए| उनको पैसे लेकर भी अच्छा खाने को नहीं देते थे| संक्षिप्त में, जब तक गोर लोग अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक इस स्थिति में सुधार असम्भव लगता है| ऐसा ही भारतीय साहित्य में शरणकुमार लिम्बाले का ‘अक्करमासी’ आत्मकथनात्मक उपन्यास मिलता है, जिसमे लेखक की माँ अछूत और पिता सवर्ण है, पिता जमींदार और माँ भूमिहीन् और लेखक ‘अक्करमासी’| ‘अक्करमासी’ मतलब अवैध संतान- भाराजपुत्र, जिसे समाज में ‘जारज’ कहकर अपमानित किया जाता था| अपने व्यक्तित्व की पहचान के लिए कलर्ड मेन के समक्ष जो प्रश्न था वह ही प्रश्न यहाँ भी उपस्थित दलित साहित्य की कृति में दिखायी देता है|
जातिप्रथा और वर्णव्यवस्था में मूल्य, संस्कारो और परम्पराओं का तंतु इस तरह जुड़ गया है कि स्वयं मनुष्य का मानसिक मुक्ति का प्रयास करना भी संघर्षपूर्ण और जटिल कार्य बन गया है| क्रान्तिकारी विचारक महात्मा फूले ने कहा था, ‘अस्पृश्यता देवनिर्मित नहीं परन्तु मनुष्य निर्मित है’| सच में दलितों के सांस्कृतिक-सामाजिक जागरण की मूल संवेदना को सचेत करके दलित साहित्य के नवयुग का संचार ही ये साहित्य का मूल उद्देश्य है| दलित साहित्य का प्रारम्भ डॉ. बी.आर.आम्बेडकर द्वारा सम्पादित और प्रकाशित समाचारपत्र ‘मूकनायक’ से माना जाता है| १९५३में औरंगाबाद में श्री सुखराम हिवराले की अध्यक्षता में मुंबई में ‘दलित साहित्यपरिषद’ का अधिवेशन मिला था| उस अधिवेशन में सही मायनों में दलित आन्दोलन को सक्रियता मिली और दलित साहित्यकारों में जागृति का संचार होने लगा| अस्पृश्य या स्पृश्य का भेद, इस वर्ग की मुक्ति, दासता का अंत, मानसिकता का आतंक तब तक हम दूर नहीं कर सकते जब तक ये समस्याओं को जन्म देनेवाली वाली धार्मिक, सामाजिक, जातिमूलक रुढियो, परम्पराओं और श्रद्धा-अंधश्रद्धा को जड़ से नए सोंच-विचार मिलाकर एक नये परिपेक्ष्य में बदल न दे| जन्म के आधार पर यह समाज ने जिनसे सन्मानपूर्वक जीने का अधिकार छीन लिया है, वह आगे ना बढ़ पाए इसलिए आर्थिक और शैक्षणिक स्तर को प्रयत्नपूर्वक नीचा रखा गया था| यहाँ संशोधन के तौर पर लिए गए भारतीय दलित तीनों कथनात्मक उपन्यास भी इस समस्या की ओर इशारा करती है|
कौशल्या बेसंत्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में लेखिका ने बिनदलित द्वारा होते शोषण ही नहीं दर्शाया पर दलित पिता, पति जैसे पितृसत्तात्मक समाज द्वारा दलित स्त्रियों का होता शोषण भी दर्शाया गया| लेखिका ने अपनी आजी(नानी), अपनी माँ(भागीरथी) और अपना(कौशल्या बेसंत्री) के जीवनसंघर्ष के साथ पूरे समाज के हालत और रीतिरिवाज का भी परिचय इस पुस्तक में दिया हैं| लेखिका की विधवा आजी की शादी, पति द्वारा अमानुषी अत्याचार, बच्चों को लेकर पति का छोड़ देना और मजदूरी करके स्वमानी जिंदगी जीना, फिर भागीरथी का गरीबी और सामाजिक विरोध के बीच अपनी बच्ची को पढ़ना और अपने पैरो पर खड़े करना ये सब संघर्ष का यहाँ स्पष्ट चित्र अंकित है| इन सब में लेखिका की स्थिति बहुत दयनीय बनती रही, दलित होने के नाते पग-पग घृणित होना पड़ा| अपमान से बचने के लिए कई बार अपनी जाति छुपानी पड़ी| वह लिखती है कि, “मैं अस्पृश्य हूँ, उसका मुझे बहुत दुःख होता था और मैं हीनता महसूस करती थी| कोई मुझसे मेरी जाति न पूछ बैठे, इसका मुझे सदैव डर रहता था| इसलिए मैं अकेली चुपचाप खाने की छुट्टी में या स्कूल शुरू होने से पहेले एक ओर बैठी रहती थी| लड़कियों के साथ खेलने में भी डर लगता था| मैं दूर अलग बैठकर उनका खेल देखती थी| एक बार जिसका मुझे ज्यादा डर था, वही बात हो गई| कनबी लड्कियोंने मुझसे मेरी जाति क्या है पूछा? मैंने उन्हें डर के मारे कह दिया कि मैं भी कनबी जाति की हूँ|”(पृ.४१ दोहरा अभिशाप-कौशल्या बेसंत्री) दलित स्त्री का हमेशा शोषण होता, वह अपने ही घर में सुरक्षति नहीं थी| लेखिका व्यक्ति के शिक्षण से प्रभावीत हो कर देवेन्द्रकुमार जैसे पढ़े-लिखें आदमी से शादी करती है पर वह अनपढ़ से भी ज्यादा गवार निकला| इस आत्मकथा में दलित समाज में शिक्षण की स्थिति, अपने ही रिश्तेदारो द्वारा परेशानी मिलनी, समाज में फैली अंधश्रद्धा, दारू-जुगार की लत, अज्ञान, आर्थिक परेशानियाँ, पाठशाला में भी उस ज़माने में वह अकेली अस्पृश्य लड़की पढ़ती थी और उससे पाठशाला में भी ज्यादा श्रम की अपेक्षा - वह सच्चाई, दलितों से भारी और कठिन काम करवाने की सोंच, मंदिर में प्रवेश निषेध, ऊँचे घर की औरतों से अवहेलना जैसी समस्याएँ तथा लेखिका की संवेदना और अपने अस्तित्व का संघर्ष यहाँ दिखता हैं| लेखिका अपने समाज को सीख देते कहती है, ‘...अगर हम स्वाभिमान से अपनी उन्नति करना चाहते है, तब हमें अपने पॉंव पर खड़ा होकर, अपने पर भरोसा रखकर, आगे बढ़ना होगा| हमें अपने अंदर शक्ति पैदा करनी होगी| किसी का सहारा लेकर चलने से काम नहीं बनेगा|’
दलित समाज की वास्तविक स्थिति को दर्शाती हरीश मंगलम के गुजराती आत्मकथनात्मक उपन्यास ‘अगनजाल’ में बुनकर समाज और उसके साथ पुरे अस्पृश्य समाज की समस्या को गहन वैचारिक तौर पर दुनिया के समक्ष रखने का और डॉ. बी.आर.आम्बेडकर के सन्देश ‘शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो’ को साहित्यिक ढांचे में ढाल कर पेश किया गया है| यहाँ लेखक खुद दलित समाज में से आते है उन्होंने जो यातना, अत्याचार, अन्याय सहने पड़े है उसका प्रगटीकरण किया हैं| दलितों को गॉंव, शाला या खेतमजदूरी में ही नहीं मिल की नौकरी में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता जैसा लेखक यहाँ लिखतें है कि, “मिलो में भी जातिवाद फैला था| दलित कारीगरों को कपड़ें प्रिंटिंग या वान्डिंग के आसान काम न देकर खून पसीना एक करनेवाले दोफर, थ्रोसल या बोइलर के विभागों में काम दिया जाता| ये विभागों में उनके बदन जल जाते और रुई से उनके फेफड़े में बीमारियाँ फैलती|”(पृ.११ अगनजाल–हरीश मंगलम) पाठशाला में भी उनको सब बच्चों के साथ नहीं बिठाया जाता, शिक्षक भी छूने के डर से दूर से ही डंडी फेंकता, पाठशाला में उनको बहुत पीटा जाता, मानसिक अत्याचार किये जाते जिससे वह पढ़ना छोड़ दे क्योंकि कनबी सोचतें, ‘दलित पढ़-लिख जायेंगें तो हमारे खेतों में मजदूरी कौन करेगा?’ उनको दबाने के लिए उनका दाना-पानी और मजदूरी नहीं देते, मारपीट करते, बहिष्कृत करते| कनबी लोग उनकी मज़बूरी का फायदा उठाके कम पैसा देते और ज्यादा काम करवाते जबकि शेठ लोग उनको ज्यादा ब्याज पर पैसे उधार देते इस तरह दलित अनपढ़ समाज हमेशा सवर्ण समाज के अहेसनों तले दबा रहता और मानते कि ‘गॉंव है तो हम है, उनके बिना कोई जीवन ही नहीं, हम तो हरिजन हैं उनको स्वमान कैसा?, हम तो जन्म से ही आधारित जीवन जीने के बाध्य हैं| लेखक कहते है कि आज़ादी के बाद भी अस्पृश्यता की इमारत की कंकर भी नहीं गिरी| दलितों को सवर्ण तो छूने का भी अधिकार नहीं ही है, सवर्ण के रास्ते पर चलते वक्त एक तरफ हो जाना, होटल में प्रवेशनिषेध और उनके लिए अलग प्याला रखना जैसे भेदभाव पर उसके विरुद्ध दलित स्त्रियों के शारीरिक शोषण पर कोई छुआछुत नहीं दिखती| ऐसे दोगले समाज के व्यवहार पर उपन्यास के पात्र हीरूभाई और वीरू जैसे व्यक्ति कटाक्ष भी करते है| यहाँ लेखक अंधश्रद्धा, धर्मान्धता, जड़ता, वर्णव्यवस्था जैसे सामाजिक समस्याओं पर प्रहार करते है उसके वैज्ञानिक कारण देकर आन्दोलन चलाते है साथ ही उपन्यास के अंत में वीरू का अपनी बुद्धि, ज्ञान और न्यायिक शक्ति का उपयोगकर अपने गॉंव के दलित महोल्ले में बिजली लाना इस समाज में आती जागृति का प्रतीक बनता है| 
उचल्या’ लक्ष्मण गायकवाड का मराठी में लिखा हुआ आत्मकथनात्मक उपन्यास है| यहाँ हजारो वर्षो से मनुष्य के तौर पर अस्वीकृत और पशुतुल्य जीवन जीने को मजबूर ऐसे महाराष्ट्र के चोरसमाज यानि की पाथरूट समाज की बात कही गयी है| लेखक कहते है कि समाज ने उनके आमदनी के सारे रास्ते बंध कर दिए तो फिर उनके सामने चोरी के आलावा कोई रास्ता बचा ही नहीं| लेखक इस समाज में जन्मे है और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर बहुत जगह घूमे है इसलिए बहुत करीब से इस समाज की परेशानियाँ, दुर्दशा और मज़बूरी को देखा हैं वह अनुभव साहित्य के माध्यम से यहाँ दर्शाए गया हैं| ये समाज में शिक्षण के तौर पर चोरी करना सिखाया जाता है, पर लेखक के बाबाने उनको पढ़ाने का फैसला किया तो उनके ही समाज के लोगोंने कुछ इस तरह से विरोध किया, “हमारे बच्चें पढनें जायेंगे तो पूरा वंश डूबेगा, यल्लमादेवी नाराज होगी, जात बाहर कर दिया जायेंगा|”(पृ.१४ उचल्या-लक्ष्मण गायकवाड) और वह ये भी मानते है कि उनकी जाति को पढ़ने का अधिकार नहीं है| पुलिस उनको जन्मजात चोर समझ कर, कहीं भी चोरी हो; गुनहगार यही समाज के लोगों को समझेगी, उनको बिना दाखिले के कही भी जाने की इजाजत नहीं, दो-तीन दिन से ज्यादा गाँव के बाहर रह नहीं सकते, जुर्माना भरवायेंगी, औरतों को पीटेंगी, बिना चोरी किये जेल में डालेगी, घर का सामान उठाकर ले जाएँगी, गुन्हा कबुलवानें के लिए बहुत पीटेंगी, और उनकी कोई इज्जत नहीं होती ऐसा व्यवहार करेंगी| भूख और गरीबी से पीड़ित इस समाज के लोग खाने को मिले वह खाते जैसाकि अनाज, चूहे, बटक, हिरन, तेतर वैसे सभी पशु-पक्षी जो खाने के लिए मिल जाये यहाँ तक कि डुक्कर भी| उनको कभी भरपेट खाना नहीं मिलता था, लोग धक्के मारकर निकलते थे, अस्पृश्यता के कारण कोई सवर्ण छूता नहीं, घड़े में से पानी नहीं पीने देता और गॉंव में सवर्ण सामने से आते तो रास्ते के किनारे हो जाना पड़ता| वह जो हालत में रहते थे उसका वर्णन देखे तो “सर्दी की मौसम में एक ही कम्बल में मै, हमारा पालतू कुत्ता, पालतू बकरी साथ सोते, कम्बल में बदबू आती, जूए निकलती, वह कम्बल साल में एक बार दशहरे पर धोई जाती|”(पृ.११ उचल्या-लक्ष्मण गायकवाड) ऐसी ही गंदगी के कारण इन समाज में बाल मृत्यु की दर काफी ऊँची दिखाय देती है| आर्थिक स्थिति खस्ता होने के कारण लेखक ने अपने प्यार को खुद ही छोड़ दिया और अपने ही भाई और बाबा को अपने घर से निकाल देते हैं, जिसका अफ़सोस उन्होंने यहाँ व्यक्त किया है| सामाजिक कार्यकर्ता और मजदूर नेता बनने पर नौकरी भी गवानी पड़ी| राजनीति का भी कटु अनुभव अपने जीवन में उन्होंने किया| किशोर शांताबाई काले की ‘छोरा कोल्हाटी का’ आत्मकथा में अपने बच्ची को या पत्नी को पैसे के लिए बेचनेवाली समस्या को उजागर करता है, ये समस्या उल्लेख ‘उचल्या’ आत्मकथा में मिलता है|
दलित साहित्य में दिखायी देती दलित समाज की समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या है जिसके चलते क्रांति होना और उसकी पृष्ठभूमि बनना सही लगता है उस विषय में ये कविता सच बोलती है,
‘भूख
आदम के पुत्रो को
आदमियतका जामा
पहनाने की कोशिश में
कितनी बार जकड़ गयी
फिर भी
भूख
बार बार
क्रांति ही सोचतीं रही|’
ये क्रांति की भूख ही दलित साहित्य का मूल स्वर है| भूख का दलित साहित्य में हुआ वर्णन उनकी बेहाल आर्थिक स्थिति का वर्णन करता है|
आफ्रीकन अमेरिकन और भारतीय दलित साहित्य में कई समानता देखने को मिलती हैं, जैसा कि, दोनों के साहित्य में साहित्यकार अपने-अपने माध्यम से अपने अस्तित्व की खोज करता है, दोनों साहित्य में वर्णित अनुभव और अभिव्यक्ति में सामाजिक विषमता मूलभूत कारण हैं, उनका दृष्टिकोण भी सामाजिक ही हैं, दोनों साहित्य, जीवन संदर्भ से जुड़े हुए है| अश्वेत साहित्यकार अपने व्यापक अनुभव और अभिव्यक्ति की तीव्रता के कारण अपनी समस्याओं को वैश्विक स्तर पर समाज के सामने रखने में काफी हद तक सफल रहे हैं, पर भारतीय दलित अपनी जीवनी, व्यथा, पीड़ा, असंतोष, अवहेलना को बृहद स्तर पर ले जाने में उतने सफल नहीं हो पाए, वह भारतीय परिपेक्ष्य तक सीमित होते दिखायी देते हैं|

·         इन सब के जीवन में भूख और रोटी की समस्या प्रमुख है| ये सभी आत्मकथनात्मक उपन्यास में मरे हुए प्राणियो के मांस और पक्षियों के मांस खाने की बात आती है|
·         स्त्री पर जो अत्याचार होते हैं, उस के बारे में अश्वेत और दलित साहित्य में बहुत कम कृति मिलती हैं| परन्तु यहाँ ‘दोहरा अभिशाप’ और ‘उचल्या’ दोनो आत्मकथा में दलित स्त्रियों की समस्याओं का काफी उल्लेख मिलता है|
·         समाज में बनती घटनाओं और उठती क्रांतिकारी लहेरो का बयान भी मिलता हैं|
·         उनके छात्रावास जीवन में सामाजिक अच्छापन, बुराइयां, रूढ़ियाँ, परमपराओं और उनके प्रभाव की चर्चा देखने को मिलती हैं| इसके साथ गाँव का जीवन काफी कठोर है पर ये छुआछूत शहर में काफी कम मात्र में मिलती है वह सच भी ये आत्मकथाओं में उजागर होता है|
·         जीवन में दु:खो के साथ छोटी छोटी खुशियों में जीना और उसे अपनों के साथ बाँटना यह सबके जीवन में महसूस होता हैं|
·         यहाँ ये सत्य भी हम देख सकते है कि चारो पुस्तकों के लेखक समाज की ये व्यवस्था से मुक्ति चाहतें हैं| ये सभी साहित्यकार अपनी महेनत, साहस और शक्ति के बल पर जमींन से उठकर शिखर तक पहुंचे हैं, ये सभी के जीवन में एक बात की समानता है कि ये सभी साहित्यकार जो समाज से आये हैं वहां उनकी पढाई का कोई मूल्य नहीं है फिर भी अपने परिवार के सहयोग से पढ़ पाए हैं इसलिए वह अपने, अपने परिवार और अपने समाज के बुरे हालत पर लिखने का सामर्थ्य जुटा पाए है|
·         ज्यादातर ये सभी पुस्तकों में एक और समानता ये भी मिलती है कि उनके आगे बढ़ने में सवर्ण समाज के लोगों ने तो रोड़े डाले ही है पर उससे ज्यादा उनके अपने समाज के लोगों, अंधविश्वास की बेडियाँ, पुरानी सोंच, अनर्थ होने का डर, अपने लोगों के प्रति रिश्तेदारों की ईर्ष्या, खुद के प्रति हीनता की भावना और सबसे बड़ा कारण है बिलकुल ख़राब आर्थिक हालत, जो किसी भी कान्तिकारी और बदलाव चाहनेवाले व्यक्ति के मजबूत मनोबल को तोड़ने के लिए काफी दिखायी देती हैं|
·         सभी में लेखको के जीवन की कठिनाईयां और शोषण का उल्लेख तो मिलता है पर उसके साथ साथ उनकी भाषा, रीतिरिवाज, रुढियों, त्यौहार और लोकजीवन का चित्र भी स्पष्ट रूप से मिलता हैं|
·         सभी ने अपने पुस्तक में उनका समाज जैसा भी है, वैसा ही वर्णन किया है| कभी कभी तो पुस्तक में किये गए वर्णन से हमें नर्क का अनुभव होता है, हम विचलित हो उठते| ये सभी का सभी लेखको ने बड़े तटस्थ रहकर सच्चाई दिखाने का प्रयास किया मालूम होता है|
·         संक्षिप्त में, ये सभी साहित्यकारों ने अपने बचपन में जो देखा है, महसूस किया है, जो कड़वाहट सही है, जो जीवन के उतार-चढाव देखे हैं, अपने आसपास जो परिवेश देखा है, समाज के बंधन का अनुभव किया है और धीरे-धीरे, पर ठोस तरीकों से होनेवाले सामाजिक परिवर्तन को और उसमे मिलनेवाले राष्ट्र के संवैधानिक रक्षण और सामाजिक दायरे को वह अपनी ही शैली में, अपनी ही बोली या स्थानिक भाषा के रंग में उसे भिगोकर प्रस्तुत की है|
·         अफ्रीकन अमेरिकन और दलित समाज दोनों में शिक्षण का स्तर काफी नीचा है, वह लोग शिक्षा के बजाय रोटी को कमाने की ओर उनका झुकाव ज्यादा है, साथ ही सवर्ण या गोरा समाज उनको पढ़ना भी नहीं चाहता क्योंकि ये सब पढ़ने लगे तो ऊपरी वर्ग के लोगों के घर या काम की जगह मजदूर मिलने बंद हो जायेंगें और आज तक जिनका शोषण करते आये हैं वह लोग उनसे अपना हक और न्याय मांग सकते हैं जिससे उनका कोरोबार घट सकता है और उनके मुनाफें में भी कमी आ सकती हैं|
·         अफ्रीकन अमेरिकन और दलित लोग अपने आप को ही श्वेत और सवर्ण लोगों के बीच हीन् समझते है, सदियों से चली आ रही प्रथा और मानसिकता की बेडीयोंने उनको इस कदर जकड़ लिया है की वह खुद भी इस हीन् मानसिक सोंच के शिकार हो गये है, वह खुद बदलना नहीं चाहते, उन्होंने खुद ये अन्यायपूर्ण स्थिति तो स्वीकार कर लिया है| मानवीय अधिकारों और न्यायिक व्यवस्था और शिक्षण के स्तर में बढ़ोतरी होने से विद्रोह की स्थिति तो पैदा हुई है पर पूरी तरह सामाजिक और मानसिक बदलाव अभी भी बाकी है|

वैसे कई विषय पर अफ्रीकन अमेरिकन और दलित साहित्य एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी दिखायी देते हैं, जैसा कि, दलित भारत निवासी हैं, जबकि अश्वेत साहित्यकर गुलामों के तौर पर पूरे विश्व में फैलें हुए हैं| अफ्रीकन अमेरिकन साहित्यकार जहाँ बस चुके हैं वहां, उस प्रदेश में अपने क़ानूनी अधिकारों के लिए लड़तें रहे जबकि भारतीय दलितों को तो भारतीय संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है पर वह सामाजिक समानता को प्राप्त करने के लिए लड़तें है|
·         अफ्रीकन अमेरिकन लोग अपने रंग की वहज अछूत रहे है जबकि दलित समाज अपने कार्य की वजह से अछूत बना है| अफ्रीकन अमेरिकन को दूसरे प्रदेश के लोगों ने गुलाम बनाया है और अपने स्वार्थ के लिए उन्हें दबाया है, जबकि दलित लोगों को तो अपने ही देश के लोगों के अस्पृश्य किया है| वह समाज की गंदगी दूर करते है और सवर्ण लोगों ने उन्हें ही गंदा मानकर समाज के बहार फेंक दिया| इन्सान कर्म से अपना भाग्य बनाता, अपनी जाति तो स्थापित करता है पर यहाँ तो वेदों के या फिर आदि ग्रंथो की बातों के मायने ही बदल दिए, अपने ही स्वार्थ और सहूलियत के हिसाब से वर्णव्यवस्था को जन्म के दायरे में बांधकर भेदभाव को बढ़ावा दे दिया|
·         अफ्रीकन अमेरिकन समाज में नीग्रो को अपने हक के लिए न्यायिक तौर पर लड़ते रहे जबकि दलित लोगों को न्यायिक संरक्षण तो प्राप्त हो गया पर सामाजिक तौर पर उनको न्याय मिलना अभी भी बाकी है|
साहित्य ही एक माध्यम है जो अपने आसपास के परिवेश को कलात्मकता से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करता है| साहित्य नए विचार और संवेदन को समाज में निरंतर प्रवाहित रखता है| अफ्रीकन अमेरिकन और भारतीय दलित साहित्य दोनों नव जागृत संवेदनशीलता का स्वाभाविक प्रतिबिम्ब है और कई नये आयामों से पारंपरिक महत्वपूर्ण सिद्धांतो को मूल से बदलने के लिए सोचनें पर विवश भी करता है| ये संदर्भ में ओड्रे लार्ड की एक कविता ‘A litany for Survival’ कितना सही वह देखें तो,
“And when the sun rises we are afraid
it might not remain...
When our stomachs are empty we are afraid
Of indigestion
When we are loved we are afraid
Love will vanish...
And when we speak we are afraid
Our words will not be heard
Nor welcomed
But when we are silent
We are still afraid

So it is better to speak
Remembering
We are never meant to Survive.”
साहित्य अपने आप में एक अलग ही दुनिया है जो अपने साथ समाज को अपने सर्जन में खींचकर ले आती है, अपने आसपास की दुनिया से कोई भी इन्सान परे नहीं हो सकता| समाज की बदलती पृष्ठभूमि और बदलती सोंच साहित्य के माध्यम से दुनिया के सामने आती ही रहती है, बस हमें तो वह बदलती हवा हो भांपना है, उसे समझना है और सीखना है, वही सही शिक्षा और संशोधन का लक्ष्य रहना चाहिए|
संदर्भ:-
गुजराती पुस्तकें:-
·         अगनजाल                       हरीश मंगलं               २००७
·         आत्मकथा                      ललित परमार              १९९७
·         आधुनिकोत्तर साहित्य              संपा. सुधा निरंजन पंड्या     २००६
·         उठावगीर                        लक्ष्मण गायकवाड़           १९९६
·         गुजराती दलित साहित्य :           संपा. मोहन परमार और      २००१
स्वाध्याय और समीक्षा             हरीश मंगलम
·         गुजराती दलित साहित्यनी कड़ीए           दलपत चौहान           २००८
·         दलित साहित्य : अभ्यास और अवलोकन संपा.गुणवंत व्यास        २००८
·         दलित साहित्य आन्दोलन           डो. चन्द्रकुमार वरठे         २००३
·         दलित साहित्य की रुपरेखा          संपा. नाथालाल गोहील       २००८
·         प्रवेशिका ब्लैक लिटरेचर                  सिद्धार्थ और क्षिति भट्ट  २००३
·         साहित्य और समाज               विद्युत जोशी               २०१२
हिंदी पुस्तकें:-
·         दलित और अश्वेत साहित्य कुछ विचार संपा. चमन लाल           २००१
·         दोहरा अभिशाप                   कौशल्या बेसंत्री             १९९९
अंग्रेजी पुस्तकें:-
·         The Autobiography of an Ex-colored Man          James Weldon Jonhson-1912
·         Dalit literary tradition in Gujarati: A Critical study-M.B.Gaijan                2007
·         Dalit Pesonal Narratives                                       Raj kumar                     2010
Gujarati Dalit Literature A Critical Study             B.S.Nimavat                             2012

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